अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर की जीवनी | Bahadur Shah Zafar Biography in Hindi
भारत के मुगल साम्राज्य के अंतिम बादशाह बहादुरशाह जफर (Bahadur Shah Zafar) ने 1857 की क्रांति का नेतृत्व किया और अंग्रेजो के विरुद्ध लड़े | अंग्रेजो ने उन्हें कैद करके रंगून जेल में डाल दिया , जहां 1862 में उनकी मृत्यु हो गयी | बहादुरशाह (Bahadur Shah Zafar) की स्मृति में भारत सरकार ने 24 अक्टूबर 1975 को “प्रसिद्ध व्यक्ति टिकट माला” के अंतर्गत एक रूपये मूल्य का डाक टिकिट जारी किया था | टिकट पर उनकी मशहूर गजल के दो शेर प्रस्तुत किये गये थे |
अब्दुल मोहम्मद सिराजुद्दीन बहादुर शाह (Bahadur Shah Zafar) एक संगीत प्रेमी ,शायर और भवन निर्माता के रूप में भी विख्यात हुए | वे फारसी के अच्छे विद्वान थे और उर्दू में प्रभावोंत्पाद्क कविताये भी लिखा करते थे | उनके द्वारा रचित अनेक दीवान उपलब्ध है | बहादुरशाह का जन्म 24 अक्टूबर 1775 को हुआ था | अपने पिता अकबरशाह दोयम की मृत्यु के बाद सन 1837 ई. में दिल्ली की गद्दी पर बैठे | अभी ब्रिटेन अपने यूरोपीय हारो के घाव भी नही सहला पाया था कि प्रथम भारतीय क्रान्ति के नक्कारे गूंज उठे |
सन 1857 की एक बड़ी भोर हिन्दुस्तान के राजा-महाराजो के नाम पर खरीता पहुचा “मेरी उत्कृष्ट अभिलाषा है कि चाहे जिस कीमत पर बने , फिरंगीयो को हिन्दुस्तान से निकाल दिया जाए| इस लड़ाई में हिंदुस्तान की जनता हमारा नेतृत्व करे | फिरंगियों के चले जाने पर मै अपना सिहासन छोड़ दूंगा अथवा तुरंत ही यदि आप सब राजा लोग फिरंगियों का नाश करने के लिए शस्त्र ग्रहण करे तो मै अत्यंत आनन्दपूर्वक राज्याधिकार छोड़ देने को प्रस्तुत हु | इतना ही नही आसेतु भारतभूमि में एक स्वतंत्र , संघराज्य स्थापित करने की मेरी तैयारी है | …….भाइयो स्वतंत्रता का युद्ध शुरू हो रहा है जल्दी कीजिये | यदि आप दक्षिण में भोजन कर रहे है तो हाथ उत्तर में दिल्ली में आकर धोइए | मातृभूमि आपकी राह देख रही है ” | भारत सम्राट बहादुरशाह जफर
इस चिंगारी ने सारे भारत को आग लगा दी | स्वतंत्रता के सैनिको के वीर गीतों से देश का आकाश गूंज उठा | हिन्दू , मुसलमान , सिख , पारसी सभी आजादी के झंडे के नीचे एकत्र हो गये | एक ही दिन में दिल्ली के आंगन से फिरंगी भाग चला | वहा भारतीय स्वाधीनता की घोषणा हुयी | नये नये वीर सामने आये -तात्या टोपे , वीर कुंवरसिंह , अजीजन , नाना साहब , मौलवी अहमद शाह और अमरसिंह आदि अनेक देशभक्त फिरंगी को सदा के लिए विदा करने के लिए तत्पर हुए |
उस समय दिल्ली में अगर मिर्जा इलाही बक्श जैसे गद्दार न होते तो हरगिज दिल्ली पर फिरंगी का यूनियन जेक न फहराता | मिर्जा इलाही बक्श बहादुरशाह (Bahadur Shah Zafar) का समधी था | शहजादे नौ भाई थे फिर भला इलाही बक्श को कैसे तख्त मिल सकता था ? अंग्रेज अक्लमंद थे | उन्होंने हरेक भाई के दिमाग में यह फितूर भर दिया कि वह चाहे तो हिन्दुस्तान के तख्त का मालिक बन सकता है लेकिन कोई भाई उनके फंदे में नही फंसा | आखिर इलाहीबक्श ने यह जुआ खेला और इसका परिणाम सामने आया | मिर्जा इलाहीबक्श और उस जैसे देशद्रोहियों की मदद से दिल्ली शहर पर अंग्रेजो का अधिकार हो गया | अगर इन देशद्रोहियों की मदद न होती तो दुनिया की सभी तकते मिलकर भी बहादुरशाह जफर (Bahadur Shah Zafar) की दिल्ली को गुलाम नही बना सकती थी |
जनरल विल्सन ने पांच जनरलों के साथ दिल्ली पर पांच तरफ से हमला किया | इंच-इंच और चप्पे-चप्पे पर जमीन को आजादी के दीवानों ने अपने लहू से लाल कर दिया | सिपहसलार बख्त खा ने बादशह को अपने साथ आने के लिए समझाया लेकिन मिर्जा इलाही बक्श के कहने पर बादशाह गया नही | मेजर हडसन का इलाही बक्श को यही इशारा था | हडसन ने उसे बड़े इनाम का वादा किया था | अंग्रेजो ने अपना वाद निभाया भी |
हुमायूँ के मकबरे में बख्तखा जब बादशाह से मिलकर चला गया तो मिर्जा इलाही बक्श ने हडसन को चुपके से खबर भेज दी कि पश्चिमी दरवाजे से आकर बादशाह को पकड़ लो | मुगल बादशह को गिरफ्तार कर लिया गया | साथ में बेगम जीनत महल और शाहजहां जवांतबख्स भी थे | लाल किले में उन्हें बंदी बनाकर रखा गया | मिर्जा इलाहे बक्श और उसके साथियों ने सोचा कि अब तख्त के दुसरे दावेदारों का भी काम तमाम होना चाहिए | उन्होंने हडसन को खबर भेजी कि बहादुरशाह के दो बेटे और एक पोता पकड़े जा सकते है |
हडसन लौटा , मिर्जा मुगल ,मिर्जा अख्तर सुलतान और मिर्जा अबूबकर को हडसन ने पकडकर गोली मार दी | तीनो के सिर काटकर हडसन ने बहादुरशाह के सामने रख दिए “बादशह सलामत ,कम्पनी की तरफ से यह नजराना है जो बरसों से बंद था” | लेकिन बादशाह ने उफ़ तक नही की | हडसन ने शहजादों के शवो को ठोकरे मारी | उनके सिर दरवाजे पर और धड़ कोतवाली के सामने टंगवा दिए | अंग्रेजो इ जफर को बगावत का प्रतीक मानते हुए दिल्ली की गद्दी से उतार दिया और उन्हें राजद्रोह , साजिश , कत्ल आदि के जुर्म में सजा देकर रंगून भेज दिया जहां 1862 में उनका निधन हो गया |
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